Saturday 23 January 2016

टैगोर की कहानी - काबुलीवाला

 काबुलीवाला

- रवीन्द्रनाथ टैगोर

       मेरी पाँच वर्ष की छोटी लड़की मिनी से पल भर भी बात किए बिना नहीं रहा जाता। दुनिया में आने के बाद भाषा सीखने में उसने सिर्फ एक ही वर्ष लगाया होगा। उसके बाद से जितनी देर तक सो नहीं पाती है, उस समय का एक पल भी वह चुप्पी में नहीं खोती। उसकी माता बहुधा डांट-फटकारकर उसकी चलती हुई जबान बन्द कर देती है; किन्तु मुझसे ऐसा नहीं होता, मिनी का मौन मुझे ऐसा अस्वाभाविक-सा प्रतीत होता है कि मुझसे वह अधिक देर तक सहा नहीं जाता और यही कारण है कि मेरे साथ उसके भावों का आदान-प्रदान कुछ अधिक उत्साह के साथ होता रहता है।
    सवेरे मैंने अपने उपन्यास के सत्रहवें अध्‍याय में हाथ लगाया ही था कि इतने में मिनी ने आकर कहना आरम्भ कर दिया- ''बाबूजी! रामदयाल दरबान कल 'काक' को कौआ कहता था। वह कुछ जानता ही नहीं, न बाबूजी?''
    विश्व की भाषाओं की विभिन्नता के विषय में मेरे कुछ बताने से पहले ही उसने दूसरा प्रसंग छेड़ दिया- ''बाबूजी! भोला कहता था आकाश मुँह से पानी फेंकता है, इसी से बरसा होती है। अच्छा बाबूजी, भोला झूठ-मूठ कहता है न? खाली बक-बक किया करता है, दिन-रात बकता रहता है।''
    इस विषय में मेरी राय की तनिक भी राह न देख करके, चट से धीमे स्वर में एक जटिल प्रश्न कर बैठी, बाबूजी, माँ तुम्हारी कौन लगती है?''
    मन-ही-मन में मैंने कहा सालीऔर फिर बोला- ''मिनी, तू जा, भोला के साथ खेल, मुझे अभी काम है, अच्छा।''
     तब उसने मेरी मेज के पार्श्व में पैरों के पास बैठकर अपने दोनों घुटने और हाथों को हिला-हिलाकर बड़ी शीघ्रता से मुँह चलाकर 'अटकन-बटकन दही चटाके' कहना आरम्भ कर दिया। जबकि मेरे उपन्यास के अध्‍याय में प्रतापसिंह उस समय कंचनमाला को लेकर रात्रि के प्रगाढ़ अन्धकार में बन्दीगृह के ऊँचे झरोखे से नीचे कलकल करती हुई सरिता में कूद रहे थे।
    मेरा घर सड़क के किनारे पर था, सहसा मिनी अपने अटकन-बटकन को छोड़कर कमरे की खिड़की के पास दौड़ गई, और जोर-जोर से चिल्लाने लगी, ''काबुल वाला, ओ काबुल वाला।''
   

        मैले-कुचैले ढीले कपड़े पहने, सिर पर कुल्ला रखे, उस पर साफा बाँधे कन्धे पर सूखे फलों की मैली झोली लटकाए, हाथ में चमन के अंगूरों की कुछ पिटारियाँ लिए, एक लम्बा-तगड़ा-सा काबुली मन्द चाल से सड़क पर जा रहा था। उसे देखकर मेरी छोटी बेटी के हृदय में कैसे भाव उदय हुए वह बताना असम्भव है। उसने जोरों से पुकारना शुरू किया। मैंने सोचा, अभी झोली कन्धे पर डाले, सिर पर एक मुसीबत आ खड़ी होगी और मेरा सत्रहवाँ अध्‍याय आज अधूरा रह जाएगा।
    किन्तु मिनी के चिल्लाने पर ज्यों ही काबुली ने हँसते हुए उसकी ओर मुँह फेरा और घर की ओर बढ़ने लगा; त्यों ही मिनी भय खाकर भीतर भाग गई। फिर उसका पता ही नहीं लगा कि कहाँ छिप गई? उसके छोटे से मन में वह अन्धविश्वास बैठ गया था कि उस मैली-कुचैली झोली के अन्दर ढूँढने पर उस जैसी और भी जीती-जागती बच्ची निकल सकती है।

    इधर काबुली ने आकर मुस्कराते हुए मुझे हाथ उठाकर अभिवादन किया और खड़ा हो गया। मैंने सोचा, वास्तव में प्रताप सिंह और कंचनमाला की दशा अत्यन्त संकटापन्न है, फिर भी घर में बुलाकर इससे कुछ न खरीदना अच्छा न होगा।
    कुछ सौदा खरीदा गया। उसके बाद मैं उससे इधर-उधर की बातें करने लगा। रहमत, रूस, अंग्रेज, सीमान्त रक्षा के बारे में गप-शप होने लगी।
    अन्त में उठकर जाते हुए उसने अपनी मिली-जुली भाषा में पूछा- ''बाबूजी, आपकी बच्ची कहाँ गई?''

    मैंने मिनी के मन से व्यर्थ का भय दूर करने के अभिप्राय से उसे भीतर से बुलवा लिया। वह मुझसे बिल्कुल लगकर काबुली के मुख और झोली की ओर सन्देहात्मक दृष्टि डालती हुई खड़ी रही। काबुली ने झोली में से किसमिस और खुबानी निकालकर देनी चाहीं, पर उसने न लीं, और दुगुने सन्देह के साथ मेरे घुटनों से लिपट गई। उसका पहला परिचय इस प्रकार हुआ।
    इस घटना के कुछ दिन बाद एक दिन सवेरे मैं किसी आवश्यक कार्यवश बाहर जा रहा था? देखूँ तो मेरी बिटिया दरवाजे के पास बेंच पर बैठी हुई काबुली से हँस-हँसकर बातें कर रही है और काबुली उसके पैरों के समीप बैठा-बैठा मुस्कराता हुआ, उन्हें ध्यान से सुन रहा है और बीच-बीच में अपनी राय मिली-जुली भाषा में व्यक्त करता जाता है। मिनी को अपने पाँच वर्ष के जीवन में, बाबूजी के सिवा, ऐसा धैर्य वाला श्रोता शायद ही कभी मिला हो। देखा तो, उसका फिराक का अग्रभाग बादाम-किसमिस से भरा हुआ है। मैंने काबुली से कहा- ''इसे यह सब क्यों दे दिया? अब कभी मत देना?'' कहकर कुर्ते की जेब में से एक अठन्नी निकालकर उसे दी। उसने बिना किसी हिचक के अठन्नी लेकर अपनी झोली में रख ली?
    कुछ देर बाद, घर लौटकर देखता हूँ तो उस अठन्नी ने बड़ा भारी उपद्रव खड़ा कर दिया है।
    मिनी की माँ एक सफेद चमकीला गोलाकार पदार्थ हाथ में लिए डांट-डपटकर मिनी से पूछ रही थी- ''तूने यह अठन्नी पाई कहाँ से, बता?''
    मिनी ने कहा- ''काबुल वाले ने दी है।''
    ''काबुल वाले से तूने अठन्नी ली कैसे, बता?''
    मिनी ने रोने का उपक्रम करते हुए कहा- ''मैंने माँगी नहीं थी, उसने आप ही दी है।''
    मैंने जाकर मिनी की उस अकस्मात मुसीबत से रक्षा की, और उसे बाहर ले आया।
    मालूम हुआ कि काबुली के साथ मिनी की यह दूसरी ही भेंट थी, सो बात नहीं। इस दौरान में वह रोज आता रहा है और पिस्ता-बादाम की रिश्वत दे-देकर मिनी के छोटे से हृदय पर बहुत अधिकार कर लिया है।
    देखा कि इस नई मित्रता में बंधी हुई बातें और हँसी ही प्रचलित है। जैसे मेरी बिटिया, रहमत को देखते ही, हँसती हुई पूछती- ''काबुल वाला और काबुल वाला, तुम्हारी झोली के भीतर क्या है? काबुली जिसका नाम रहमत था, एक अनावश्यक चन्द्र-बिन्दु जोड़कर मुस्कराता हुआ उत्तर देता- ''हाँ बिटिया

उसके परिहास का रहस्य क्या है, यह तो नहीं कहा जा सकता; फिर भी इन नए मित्रों को इससे तनिक विशेष खेल-सा प्रतीत होता है और जाड़े के प्रभात में एक सयाने और एक बच्ची की सरल हँसी सुनकर मुझे भी बड़ा अच्छा लगता।
    उन दोनों मित्रों में और भी एक-आध बात प्रचलित थी। रहमत मिनी से कहता- ''तुम ससुराल कभी नहीं जाना, अच्छा?''
    हमारे देश की लड़कियाँ जन्म से ही 'ससुराल' शब्द से परिचित रहती हैं; किन्तु हम लोग तनिक कुछ नई रोशनी के होने के कारण तनिक-सी बच्ची को ससुराल के विषय में विशेष ज्ञानी नहीं बना सके थे, अत: रहमत का अनुरोध वह स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाती थी; इस पर भी किसी बात का उत्तर दिए बिना चुप रहना उसके स्वभाव के बिल्कुल ही विरुद्ध था। उल्टे वह रहमत से ही पूछती-''तुम ससुराल जाओगे?''
    रहमत काल्पनिक श्वसुर के लिए अपना जबर्दस्त घूँसा तानकर कहता- ''हम ससुर को मारेगा।''
    सुनकर मिनी 'ससुर' नामक किसी अनजाने जीव की दुरावस्था की कल्पना करके खूब हँसती।
    देखते-देखते जाड़े की सुहावनी ऋतु आ गई। पूर्व युग में इसी समय राजा लोग दिग्विजय के लिए कूच करते थे। मैं कलकत्ता छोड़कर कभी कहीं नहीं गया, शायद इसीलिए मेरा मन ब्रह्माण्ड में घूमा करता है। यानी, मैं अपने घर में ही चिर प्रवासी हूँ, बाहरी ब्रह्माण्ड के लिए मेरा मन सर्वदा आतुर रहता है। किसी विदेश का नाम आगे आते ही मेरा मन वहीं की उड़ान लगाने लगता है। इसी प्रकार किसी विदेशी को देखते ही तत्काल मेरा मन सरिता-पर्वत-बीहड़ वन के बीच में एक कुटीर का दृश्य देखने लगता है और एक उल्लासपूर्ण स्वतंत्र जीवन-यात्रा की बात कल्पना में जाग उठती है।
    इधर देखा तो मैं ऐसी प्रकृति का प्राणी हूँ, जिसका अपना घर छोड़कर बाहर निकलने में सिर कटता है। यही कारण है कि सवेरे के समय अपने छोटे से कमरे में मेज के सामने बैठकर उस काबुली से गप-शप लड़ाकर बहुत कुछ भ्रमण का काम निकाल लिया करता हूँ। मेरे सामने काबुल का पूरा चित्र खिंच जाता। दोनों ओर ऊबड़खाबड़, लाल-लाल ऊँचे दुर्गम पर्वत हैं और रेगिस्तानी मार्ग, उन पर लदे हुए ऊँटों की कतार जा रही है। ऊँचे-ऊँचे साफे बाँधे हुए सौदागर और यात्री कुछ ऊँट की सवारी पर हैं तो कुछ पैदल ही जा रहे हैं। किन्हीं के हाथों में बरछा है, तो कोई बाबा आदम के जमाने की पुरानी बन्दूक थामे हुए है। बादलों की भयानक गर्जन के स्वर में काबुली लोग अपने मिली-जुली भाषा में अपने देश की बातें कर रहे हैं।
    मिनी की माँ बड़ी वहमी तबीयत की है। राह में किसी प्रकार का शोर-गुल हुआ नहीं कि उसने समझ लिया कि संसार भर के सारे मस्त शराबी हमारे ही घर की ओर दौड़े आ रहे हैं? उसके विचारों में यह दुनिया इस छोर से उस छोर तक चोर-डकैत, मस्त, शराबी, साँप, बाघ, रोगों, मलेरिया, तिलचट्टे और अंग्रेजों से भरी पड़ी है। इतने दिन हुए इस दुनिया में रहते हुए भी उसके मन का यह रोग दूर नहीं हुआ।
    रहमत काबुली की ओर से भी वह पूरी तरह निश्चिंत नहीं थी। उस पर विशेष नजर रखने के लिए मुझसे बार-बार अनुरोध करती रहती। जब मैं उसके शक को परिहास के आवरण से ढकना चाहता तो मुझसे एक साथ कई प्रश्न पूछ बैठती- ''क्या कभी किसी का लड़का नहीं चुराया गया? क्या काबुल में गुलाम नहीं बिकते? क्या एक लम्बे-तगड़े काबुली के लिए एक छोटे बच्चे को उठा ले जाना असम्भव है?'' इत्यादि।
    मुझे मानना पड़ता कि यह बात नितान्त असम्भव हो, सो बात नहीं पर भरोसे के काबिल नहीं। भरोसा करने की शक्ति सब में समान नहीं होती, अत: मिनी की माँ के मन में भय ही रह गया लेकिन केवल इसीलिए बिना किसी दोष के रहमत को अपने घर में आने से मना न कर सका।
    हर वर्ष रहमत माघ मास में लगभग अपने देश लौट जाता है। इस समय वह अपने व्यापारियों से रुपया-पैसा वसूल करने में तल्लीन रहता है। उसे घर-घर, दुकान-दुकान घूमना पड़ता है, लेकिन फिर भी मिनी से उसकी भेंट एक बार अवश्य हो जाती है। देखने में तो ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों के मध्य किसी षडयंत्र का श्रीगणेश हो रहा है। जिस दिन वह सेवेरे नहीं आ पाता, उस दिन देखूँ तो वह संध्या को हाजिर है। अँधेरे में घर के कोने में उस ढीले-ढाले जामा-पाजामा पहने, झोली वाले लम्बे-तगड़े आदमी को देखकर सचमुच ही मन में अचानक भय-सा पैदा हो जाता है।
    लेकिन, जब देखता हूँ कि मिनी 'ओ काबुल वाला' पुकारती हुई हँसती-हँसती दौड़ी आती है और दो भिन्न-भिन्न आयु के असम मित्रों में वही पुराना हास-परिहास चलने लगता है, तब मेरा सारा हृदय खुशी से नाच उठता है।
    एक दिन सवेरे मैं अपने छोटे कमरे में बैठा हुआ नई पुस्तक के प्रूफ देख रहा था। जाड़ा, विदा होने से पूर्व, आज दो-तीन दिन खूब जोरों से अपना प्रकोप दिखा रहा है। जिधर देखो, उधर उस जाड़े की ही चर्चा है। ऐसे जाड़े-पाले में खिड़की में से सवेरे की धूप मेज के नीचे मेरे पैरों पर आ पड़ी। उसकी गर्मी मुझे अच्छी प्रतीत होने लगी। लगभग आठ बजे का समय होगा। सिर से मफलर लपेटे ऊषाचरण सवेरे की सैर करके घर की ओर लौट रहे थे। ठीक इस समय राह में एक बड़े जोर का शोर सुनाई दिया।
    देखूँ तो अपने उस रहमत को दो सिपाही बाँधे लिए जा रहे हैं। उनके पीछे बहुत से तमाशाही बच्चों का झुण्ड चला आ रहा है। रहमत के ढीले-ढाले कुर्ते पर खून के दाग हैं और एक सिपाही के हाथ में खून से लथपथ छुरा। मैंने द्वार से बाहर निकलकर सिपाही को रोक लिया, पूछा- ''क्या बात है?''
    कुछ सिपाही से और कुछ रहमत से सुना कि हमारे एक पड़ोसी ने रहमत से रामपुरी चादर खरीदी थी। उसके कुछ रुपये उसकी ओर बाकी थे, जिन्हें देने से उसने साफ इन्कार कर दिया। बस इसी पर दोनों में बात बढ़ गई और रहमत ने छुरा निकालकर घोंप दिया।
    रहमत उस झूठे बेईमान आदमी के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के अपशब्द सुना रहा था। इतने में ''काबुल वाला! ओ काबुल वाला!'' पुकारती हुई मिनी घर से निकल आई।
    रहमत का चेहरा क्षण-भर में कौतुक हास्य से चमक उठा। उसके कन्धे पर आज झोली नहीं थी। अत: झोली के बारे में दोनों मित्रों की अभ्यस्त आलोचना न चल सकी। मिनी ने आते के साथ ही उसने पूछा- ''तुम ससुराल जाओगे।''
    रहमत ने प्रफुल्लित मन से कहा- ''हाँ, वहीं तो जा रहा हूँ।''
    रहमत ताड़ गया कि उसका यह जवाब मिनी के चेहरे पर हँसी न ला सकेगा और तब उसने हाथ दिखाकर कहा- ''ससुर को मारता, पर क्या करूँ, हाथ बंधे हुए हैं।''
    छुरा चलाने के जुर्म में रहमत को कई वर्ष का कारावास मिला।
    रहमत का ध्यान धीरे-धीरे मन से बिल्कुल उतर गया। हम लोग अब अपने घर में बैठकर सदा के अभ्यस्त होने के कारण, नित्य के काम-धन्धों में उलझे हुए दिन बिता रहे थे। तभी एक स्वाधीन पर्वतों पर घूमने वाला इन्सान कारागार की प्राचीरों के अन्दर कैसे वर्ष पर वर्ष काट रहा होगा, यह बात हमारे मन में कभी उठी ही नहीं।
    और चंचल मिनी का आचरण तो और भी लज्जाप्रद था। यह बात उसके पिता को भी माननी पड़ेगी। उसने सहज ही अपने पुराने मित्र को भूलकर पहले तो नबी सईस के साथ मित्रता जोड़ी, फिर क्रमश: जैसे-जैसे उसकी वयोवृध्दि होने लगी वैसे-वैसे सखा के बदले एक के बाद एक उसकी सखियाँ जुटने लगीं और तो क्या, अब वह अपने बाबूजी के लिखने के कमरे में भी दिखाई नहीं देती। मेरा तो एक तरह से उसके साथ नाता ही टूट गया है।
    कितने ही वर्ष बीत गए? वर्षों बाद आज फिर एक शरद ऋतु आई है। मिनी की सगाई की बात पक्की हो गई। पूजा की छुट्टियों में उसका विवाह हो जाएगा। कैलाशवासिनी के साथ-साथ अबकी बार हमारे घर की आनन्दमयी मिनी भी माँ-बाप के घर में अँधेरा करके ससुराल चली जाएगी।
    सवेरे दिवाकर बड़ी सज-धज के साथ निकले। वर्षों के बाद शरद ऋतु की यह नई धवल धूप सोने में सुहागे का काम दे रही है। कलकत्ता की संकरी गलियों से परस्पर सटे हुए पुराने ईटझर गन्दे घरों के ऊपर भी इस धूप की आभा ने एक प्रकार का अनोखा सौन्दर्य बिखेर दिया है।
    हमारे घर पर दिवाकर के आगमन से पूर्व ही शहनाई बज रही है। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जैसे यह मेरे हृदय की धड़कनों में से रो-रोकर बज रही हो। उसकी करुण भैरवी रागिनी मानो मेरी विच्छेद पीड़ा को जाड़े की धूप के साथ सारे ब्रह्माण्ड में फैला रही है। मेरी मिनी का आज विवाह है।
    सवेरे से घर बवंडर बना हुआ है। हर समय आने-जाने वालों का तांता बंधा हुआ है। आँगन में बांसों का मंडप बनाया जा रहा है। हरेक कमरे और बरामदे में झाड़-फानूस लटकाए जा रहे हैं, और उनकी टक-टक की आवाज मेरे कमरे में आ रही है। 'चलो रे', 'जल्दी करो', 'इधर आओ' की तो कोई गिनती ही नहीं है।
    मैं अपने लिखने-पढ़ने के कमरे में बैठा हुआ हिसाब लिख रहा था। इतने में रहमत आया और अभिवादन करके खड़ा हो गया।
    पहले तो मैं उसे पहचान न सका। उसके पास न तो झोली थी और न पहले जैसे लम्बे-लम्बे बाल और न चेहरे पर पहले जैसी दिव्य ज्योति ही थी। अन्त में उसकी मुस्कान देखकर पहचान सका कि वह रहमत है।
    मैंने पूछा- ''क्यों रहमत, कब आए?''
    उसने कहा- ''कल शाम को जेल से छूटा हूँ।''
    सुनते ही उसके शब्द मेरे कानों में खट से बज उठे। किसी खूनी को मैंने कभी आँखों से नहीं देखा था, उसे देखकर मेरा सारा मन एकाएक सिकुड़-सा गया? मेरी यही इच्छा होने लगी कि आज के इस शुभ दिन में वह इंसान यहाँ से टल जाए तो अच्छा हो।
    मैंने उससे कहा- ''आज हमारे घर में कुछ आवश्यक काम है, सो आज मैं उसमें लगा हुआ हूँ। आज तुम जाओ, फिर आना।''
    मेरी बात सुनकर वह उसी क्षण जाने को तैयार हो गया। पर द्वार के पास आकर कुछ इधर-उधर देखकर बोला- ''क्या, बच्ची को तनिक नहीं देख सकता?''
    शायद उसे यही विश्वास था कि मिनी अब तक वैसी ही बच्ची बनी है। उसने सोचा हो कि मिनी अब भी पहले की तरह 'काबुल वाला, ओ काबुल वाला' पुकारती हुई दौड़ी चली आएगी। उन दोनों के पहले हास-परिहास में किसी प्रकार की रुकावट न होगी? यहाँ तक कि पहले की मित्रता की याद करके वह एक पेटी अंगूर और एक कागज के दोने में थोड़ी-सी किसमिस और बादाम, शायद अपने देश के किसी आदमी से माँग-तांगकर लेता आया था? उसकी पहले की मैली-कुचैली झोली आज उसके पास न थी।
    मैंने कहा- ''आज घर में बहुत काम है। सो किसी से भेंट न हो सकेगी?''
    मेरा उत्तर सुनकर वह कुछ उदास-सा हो गया। उसी मुद्रा में उसने एक बार मेरे मुख की ओर स्थिर दृष्टि से देखा। फिर अभिवादन करके दरवाजे के बाहर निकल गया।
    मेरे हृदय में जाने कैसी एक वेदना-सी उठी। मैं सोच ही रहा था कि उसे बुलाऊँ, इतने में देखा तो वह स्वयं ही आ रहा है।
    वह पास आकर बोला- ''ये अंगूर और कुछ किसमिस, बादाम बच्ची के लिए लाया था, उसको दे दीजिएगा।''
    मैंने उसके हाथ से सामान लेकर पैसे देने चाहे, लेकिन उसने मेरे हाथ को थामते हुए कहा-''आपकी बहुत मेहरबानी है बाबू साहब, हमेशा याद रहेगी, पिसा रहने दीजिए।'' तनिक रुककर फिर बोला- ''बाबू साहब! आपकी जैसी मेरी भी देश में एक बच्ची है। मैं उसकी याद कर-कर आपकी बच्ची के लिए थोड़ी-सी मेवा हाथ में ले आया करता हूँ। मैं यह सौदा बेचने नहीं आता।''
    कहते हुए उसने ढीले-ढाले कुर्ते के अन्दर हाथ डालकर छाती के पास से एक मैला-कुचैला मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा निकाला, और बड़े जतन से उसकी चारों तह खोलकर दोनों हाथों से उसे फैलाकर मेरी मेज पर रख दिया।
    देखा कि कागज के उस टुकड़े पर एक नन्हे से हाथ के छोटे से पंजे की छाप है। फोटो नहीं, तेलचित्र नहीं हाथ में थोड़ी सी कालिख लगाकर कागज के ऊपर उसी का निशान ले लिया गया है। अपनी बेटी के इस स्मृति-पत्र को छाती से लगाकर, रहमत हर वर्ष कलकत्ता की गली-कूचों में सौदा बेचने के लिए आता है और तब वह कालिख चित्र मानो उसकी बच्ची के हाथ का कोमल-स्पर्श, उसके बिछड़े हुए विशाल वक्ष:स्थल में अमृत उड़ेलता रहता है।
   
        देखकर मेरी आंखें भर आईं और फिर मैं इस बात को बिल्कुल ही भूल गया कि वह एक मामूली काबुली मेवा वाला है, मैं एक उच्चवंश का रईस हूँ। तब मुझे ऐसा लगने लगा कि जो वह है, वही मैं हूँ। वह भी एक बाप है और मैं भी। उसकी पर्वतवासिनी छोटी बच्ची की निशानी मेरी ही मिनी की याद दिलाती है। मैंने तत्काल ही मिनी को बाहर बुलवाया; हालाँकि इस पर अन्दर घर में आपत्ति की गई, पर मैंने उस पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। विवाह के वस्त्रों और अलंकारों में लिपटी हुई बेचारी मिनी मारे लज्जा के सिकुड़ी हुई-सी मेरे पास आकर खड़ी हो गई।
    उस अवस्था में देखकर रहमत काबुल पहले तो सकपका गया। उससे पहले जैसी बातचीत न करते बना। बाद में हँसते हुए बोला- ''लल्ली! सास के घर जा रही है क्या?''
    मिनी अब सास का अर्थ समझने लगी थी, अत: अब उससे पहले की तरह उत्तर देते न बना। रहमत की बात सुनकर मारे लज्जा के उसके कपोल लाल-सुर्ख हो उठे। उसने मुँह को फेर लिया। मुझे उस दिन की याद आई, जबकि रहमत के साथ मिनी का प्रथम परिचय हुआ था। मन मे एक पीड़ा की लहर दौड़ गई।
    मिनी के चले जाने के बाद, एक गहरी साँस लेकर रहमत फर्श पर बैठ गया। शायद उसकी समझ में यह बात एकाएक साफ हो गई कि उसकी बेटी भी इतने दिनों में बड़ी हो गई होगी, और उसके साथ भी उसे अब फिर से नई जान-पहचान करनी पड़ेगी। सम्भवत: वह उसे पहले जैसी नहीं पाएगा।
    इन आठ वर्षों में उसका क्या हुआ होगा, कौन जाने? सवेरे के समय शरद की स्निग्ध सूर्य किरणों में शहनाई बजने लगी और रहमत कलकत्ता की एक गली के भीतर बैठा हुआ अफगानिस्तान के मेरु-पर्वत का दृश्य देखने लगा।
    मैंने एक नोट निकालकर उसके हाथ में दिया और कहा, ''रहमत, तुम देश चले जाओ, अपनी लड़की के पास। तुम दोनों के मिलन-सुख से मेरी मिनी सुख पाएगी।''   

    रहमत को रुपये देने के बाद विवाह के हिसाब में से मुझे उत्सव-समारोह के दो-एक अंग छांटकर काट देने पड़े। जैसी मन में थी, वैसी रोशनी नहीं करा सका, अंग्रेजी बाजा भी नहीं आया, घर में औरतें बड़ी बिगड़ने लगीं, सब-कुछ हुआ, फिर भी मेरा विचार है, कि आज एक अपूर्व ज्योत्स्ना से हमारा शुभ समारोह उज्ज्वल हो उठा।

Thursday 21 January 2016

जनवादी लेखक संघ बाँदा की “संवाद गोष्ठी”

जनवादी लेखक संघ, बांदा के तत्वाधान में चल रही संवाद गोष्ठियों की श्रृंखला के अन्तर्गत दिनांक 17 जनवरी 2016 को जनपद बांदा में व 18 जनवरी 2016 को कालिंजर में कविता पाठ व गोष्ठियों का आयोजन हुआ। 17 जनवरी को कवि केदार मार्ग, बांदा मे स्थित डीसीडीएफ परिसर में आयोजित संवाद गोष्ठी के तहत तीन  प्रकार के कार्यक्रम सम्पन्न  हुए। सबसे पहले रायपुर से आए वरिष्ठ चित्रकार कुँवर रवीन्द्र के  चित्रों की प्रदर्शिनी का उदघाटन बुन्देलखंड के जलपुरुष पर्यावरणविद पुष्पेन्द्र भाई ने किया। कुँवर रवीन्द्र के  चित्रों का मूल विषय था 'समकालीन कविता में लोक'। इस विषय के तहत उन्होंने वैचारिक रूप से बुनियादी बदलावों व लोक  की जमीनी कठिनाइयों की अभिव्यक्ति करने वाली समकालीन  कविताओं पर चित्र बनाए थे जिन्हें डीसीडीएफ हाल में प्रदर्शित किया गया। इन चित्रों की खास बात यह रही कि सभी कविताएँ आज की पीढ़ी की थीं। भूमंडलीकरण व उदार लोकतन्त्र के खतरनाक प्रभावों की भुक्तभोगी पीढ़ी की कविताओं पर उकेरे गए चित्र थे। आज जब विश्वपूँजी द्वारा तमाम हथकंडे अपनाकर लोक को हाशिए पर ढकेला जा रहा है और उच्चमध्यमवर्गीय विचारों को साहित्य के सरोकारों से जोड़कर वैचारिकता का अपक्षय किया जा रहा है ऐसे में नयी पीढी की लोकधर्मी कविताओं को अपनी कला का स्वरूप प्रदत्त कर कुँवर रवीन्द्र ने लोक को बड़े सजग तरीके से परिभाषित किया है। अपने चित्रों के द्वारा उन्होंने प्रतिरोध के एक नए स्थल को तलाशा है। उदघाटनकर्ता पुष्पेन्द्र भाई ने कहा कि यदि हम बदलाव चाहते हैं तो हमें अन्तिम जन को अपनी रचनाधर्मिता में जगह देनी होगी। परिवर्तन कभी अभिजात्य द्वारा नहीं होते, अभिजात्य क्रान्ति विरोधी होता है। लोक सचेतन संघर्ष कर सकता है यदि हम उसे भविष्य की भयावह चिन्ताओं से अवगत करा सकें। मनुष्य के खिलाफ हो रही साजिशों से यदि हम लोक को अवगत करा सकें तो निश्चित है बदलाव अधिक दिन रुकने वाला नहीं है। कुँवर रवीन्द्र के चित्र इस मायने में बड़ी शिद्दत से अपना काम कर रहे हैं। 

संवाद गोष्ठी के दूसरे सत्र में वरिष्ठ कवि एवं सम्पादक सुधीर सक्सेना के नए कविता संग्रह 'कुछ भी नहीं है अन्तिम' का लोकार्पण हुआ। इस संग्रह में उनकी नयी कविताएँ संग्रहीत हैं। इस संग्रह में जीवन के वैविध्यपूर्ण आयामों को जनदृष्टि से परखा गया है। संग्रह का लोकार्पण जनपद बांदा के लोकप्रिय प्रगतिशील किसान प्रेम सिंह ने किया। विमोचन के बाद सुधीर सक्सेना ने इस संग्रह की कई कविताओं का पाठ किया। संग्रह पर परिचर्चा करते हुए युवा कवि सन्तोष चतुर्वेदी ने कुछ भी नहीं हैअन्तिम को रचनात्मक ऊर्जा की अक्षय सम्भावनाओं का संकेत कहा। उनका कहना था कि हम समाज में मनुष्य की उपस्थिति को तभी प्रमाणित कर सकते हैं जब रचनात्मक ऊर्जा बनी रहे। कुछ भी नहीं है अन्तिमरचनात्मक संघर्षों और उसके अन्दरूनी टकरावों की वैज्ञानिक विवेचना करती हुई ऊर्जा को बचाकर रखने की जबरदस्त सिफारिश करती है। जनवादी लेखक संघ, बांदा के सचिव उमाशंकर सिंह परमार ने कहा कि कुछ भी नहीं है अन्तिमपूँजी के भयावह साम्राज्य से पीड़ित आम आदमी की चीखों का मुकम्मल दस्तावेज है। हिटलरकविता पर अपनी बात रखते हुए उन्होंने कहा कि हिटलर को मिथक के रुप में न लेकर हमें प्रवृत्ति के रूप में लेना चाहिए क्योंकि कवि ने इस प्रवृत्ति को समूचे विश्व के सन्दर्भ में परखा है। आज विश्व का हर गरीब देश फासीवादी प्रवृत्तियों से जूझ रहा है। कहीं धर्म के नाम पर, कहीं रक्त के नाम पर, कहीं आतंक व सत्ता संघर्षों के नाम पर इस आदत को बरकरार रखने की पुरजोर कोशिश की जा रही है। हिटलरकविता इस मनुष्यता विरोधी आदत के बरक्स जनचेतना को खड़ा करती है| संग्रह पर बोलते हुए प्रगतिशील किसान प्रेम सिंह ने कहा कि किसानों व उनकी आजीविका को कविता का विषय बनाकर आप हमारे कठिन संघर्षों को आवाज दे रहे हैं। कवि भी किसान है क्योंकि वह परिवर्तन की खेती करता है। आप इतनी दूर से चलकर बुन्देली किसानों के बीच आकर अपने इस कविता संग्रह का लोकार्पण करा रहे हैं यह हम किसानों के लिए भी एक गौरव की बात है। आज जब खेती और किसानी साहित्य से गायब होती जा रही है ऐसे समय में किसानों के पक्ष में आवाज बुलन्द करना हमारी ताकत को बढ़ाता है। अध्यक्षता कर रहे चन्द्रिका प्रसाद दीक्षित ललित ने सुधीर सक्सेना की कविताओं को मनुष्यता व प्रकृति का मार्मिक अवगुंठन कहा। उन्होंने कहा कि जनवादी लेखक संघ ने लगातार कार्यक्रमों  का आयोजन करके बांदा में फिर से केदार की परम्परा को जीवित कर दिया है। सभी आगन्तुक कवियों और पाठकों का स्वागत करते हुए उन्होंने भविष्य में इसी तरह के सकारात्मक उम्मीदपरक आयोजनों की कामना व्यक्त की। संवाद गोष्ठी का तीसरा सत्र कविता पाठ का रहा जिसके तहत वरिष्ठ कवि सुधीर सक्सेना, कुँवर रवीन्द्र, सन्तोष चतुर्वेदी, जनपद बांदा के गजलकार कालीचरण सिंह, युवा कवि नारायण दास व प्रद्युम्न सिंह ने कविता पाठ किया। इस सत्र में पढ़ी गयी कविताएँ किसानों के पक्ष में भूमंडलीकरण के नकारात्मक प्रभावों की समीक्षा कर रही थीं। कविता पाठ की अध्यक्षता सुधीर सक्सेना ने की व संचालन जनवादी लेखक संघ के सचिव उमाशंकर सिंह परमार ने किया। जनपद बांदा के युवा कवि प्रद्युम्न सिंह ने किसानों की आत्महत्या पर प्रशासन व जनप्रतिनिधियों की निन्दा करते हुए अपनी कविता 'वह शराबी नहीं था/ भूख ने एक हादसे में ले ली है जान" का पाठ किया। युवा कवि नारायण दास गुप्त ने सामयिक परिस्थितियों की पूँजीकृत संरचना व इस परिवेश में सिमटकर चेतना के हो रहे विनाश पर आक्रोश व्यक्त करते हुए 'लाश में तब्दील हो जाना' नामक कविता पढ़ी। इस कविता में युग और भावबोध दोनों का समन्यवय परखा जा सकता है। गजलकर कालीचरण सिंह जौहर की गजलें और गीत पूरे कार्यक्रम कै दौरान सराहे गए। कालीचरण सिंह की अधिकांश गज़लें साम्प्रदायिक फासीवाद का प्रतिरोध करते हुए व्यक्ति की स्वतन्त्र चेतना की खोज करती हैं। उन्होंने सुनाया 'गीता कुरआन गले मिल जाते। धर्म के ठेकेदार उलझने लगते हैं।' इसी क्रम में रायपुर से आए वरिष्ठ चित्रकार कुँवर रवीन्द्र ने अपनी प्रतिरोधपूर्ण छोटी कविताओं से श्रोताओं का मन मोह लिया। उनकी कविता 'मैं अन्धेरे से नहीं डरता/ अन्धेरा मुझसे डरता है‘  इस सन्दर्भ में बेहतरीन कविता रही।  इलाहाबाद से आए युवा कवि और अनहद संपादक सन्तोष चतुर्वेदी ने आज की बेतरतीब जिन्दगी व जीवन की खत्म होती सम्भावनाओं के बीच आम आदमी की अस्मिता व चेतना की बात करने वाली कविताएँ पढीं। सन्तोष ने अपनी कविता भीड़पढ़ते हुए कहा कि 'जगह तो हमको ही बनानी पड़ेगी/ बहुत भीड़ है।पर जगह का निर्माण कैसे हो यह आज का बड़ा सवाल है। अस्मिता की रक्षा के लिए मानवीय चेतना या जिसे हम वर्गीय चेतना कहते हैं, को बचाकर रखना पड़ेगा। वर्गीय चेतना ही मनुष्य की अस्मिता बचा सकती है। उन्होंने जद्दोजहदकविता पढ़ते हुए कहा 'रंग होने तक बची रहेंगीं आँखें' अर्थात जब तक आँखों में चेतना है तब तक आदमी का अस्तित्व है।
कविता पाठ के इस क्रम में वरिष्ठ कवि सुधीर सक्सेना ने पूँजीवादी उदार लोकतन्त्र के चरित्र का पर्दाफाश करते हुए विविध विषयों के फलक में विन्यस्त कविताएँ पढीं- 'अगर पानी में छपाक से न कूदता आर्कमिडीज/ तो ऐथेन्स की गलियों में न गूँजता यूरेका यूरेका।यह कविता आदमी के साहस से ही नव-परिवर्तन की सीख देती है। उनकी सारी कविताएँ मनुष्य के सपनों को संघर्षों से हासिल करने के कन्टेन्ट पर रहीं- 'यदि शीत आती है तो बसन्त भी ढूँढे'। उनका अन्तिम निष्कर्ष था कि इस दुनिया में कुछ भी असम्भव नहीं है। यदि जनसमुदाय एक साथ व्यवस्था के  विरुद्ध खड़ा हो जाएगा तो सभी कुछ अपने आप उपलब्ध हो जाएगा। कुछ भी अनुपलब्ध नहीं है 'जो तत्व मेंण्डलीफ की तालिका में नहीं है/ वे भी हैं कहीं न कहीं।कविता पाठ के उपरान्त कार्यक्रम में उपस्थित  वामपंथी विचारक सुधीर सिंह ने आए हुए कवियों का आभार व्यक्त करते हुए कविता पाठ को सामयिक एवं बेहद जरूरी कहा। उन्होंने जनपद बांदा के आए हुए लेखकों-कवियों से अनुरोध किया कि बाबू केदारनाथ अग्रवाल की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए हम उनकी विरासत की रक्षा हेतु एक अभियान चलाएँ जिसके तहत हम सब मिलकर उत्तर प्रदेश सरकार को पत्र लिखें और बांदा के किसी भी चौराहे का नामकरण केदारनाथ अग्रवाल के नाम पर करने का अनुरोध करें। हम सब उनके नाम से पार्क या सभागार की माँग भी सरकार से करें। सभी उपस्थित श्रोताओं ने सुधीर सिंह की इस योजना का समर्थन किया। कार्यक्रम के संयोजक जनवादी लेखक संघ बांदा के कवि नारायण दास गुप्त व व्यवस्थापक प्रद्युम्न कुमार सिंह थे। गजलकर कालीचरण सिंह ने समूची गोष्ठी को वीडियो और ध्वनि में रिकार्ड किया।
- उमाशंकर सिंह परमार
९८३८६१०७७६                                                                    

Wednesday 20 January 2016

अमरकांत की कहानी - दोपहर का भोजन


दोपहर का भोजन

- अमरकांत

     सिद्धेश्वरी ने खाना बनाने के बाद चूल्हे को बुझा दिया और दोनों घुटनों के बीच सिर रखकर शायद पैर की उँगलियाँ या जमीन पर चलते चीटें-चीटियों को देखने लगी।
      अचानक उसे मालूम हुआ कि बहुत देर से उसे प्यास नहीं लगी है। वह मतवाले की तरह उठी ओर गगरे से लोटा-भर पानी लेकर गट-गट चढ़ा गई। खाली पानी उसके कलेजे में लग गया और वह हाय राम कहकर वहीं जमीन पर लेट गई।
      आधे घंटे तक वहीं उसी तरह पड़ी रहने के बाद उसके जी में जी आया। वह बैठ गई, आँखों को मल-मलकर इधर-उधर देखा और फिर उसकी दृष्टि ओसारे में अध-टूटे खटोले पर सोए अपने छह वर्षीय लड़के प्रमोद पर जम गई।
      लड़का नंग-धड़ंग पड़ा था। उसके गले तथा छाती की हड्डियाँ साफ दिखाई देती थीं। उसके हाथ-पैर बासी ककड़ियों की तरह सूखे तथा बेजान पड़े थे और उसका पेट हंडिया की तरह फूला हुआ था। उसका मुख खुला हुआ था और उस पर अनगिनत मक्खियाँ उड़ रही थीं।
      वह उठी, बच्चे के मुँह पर अपना एक फटा, गंदा ब्लाउज डाल दिया और एक-आध मिनट सुन्न खड़ी रहने के बाद बाहर दरवाजे पर जाकर किवाड़ की आड़ से गली निहारने लगी। बारह बज चुके थे। धूप अत्यंत तेज थी और कभी एक-दो व्यक्ति सिर पर तौलिया या गमछा रखे हुए या मजबूती से छाता ताने हुए फुर्ती के साथ लपकते हुए-से गुजर जाते।
      दस-पंद्रह मिनट तक वह उसी तरह खड़ी रही, फिर उसके चेहरे पर व्यग्रता फैल गई और उसने आसमान तथा कड़ी धूप की ओर चिंता से देखा। एक-दो क्षण बाद उसने सिर को किवाड़ से काफी आगे बढ़ाकर गली के छोर की तरफ निहारा, तो उसका बड़ा लड़का रामचंद्र धीरे-धीरे घर की ओर सरकता नजर आया।
      उसने फुर्ती से एक लोटा पानी ओसारे की चौकी के पास नीचे रख दिया और चौके में जाकर खाने के स्थान को जल्दी-जल्दी पानी से लीपने-पोतने लगी। वहाँ पीढ़ा रखकर उसने सिर को दरवाजे की ओर घुमाया ही था कि रामचंद्र ने अंदर कदम रखा।


      रामचंद्र आकर धम-से चौकी पर बैठ गया और फिर वहीं बेजान-सा लेट गया। उसका मुँह लाल तथा चढ़ा हुआ था, उसके बाल अस्त-व्यस्त थे और उसके फटे-पुराने जूतों पर गर्द जमी हुई थी।
      सिद्धेश्वरी की पहले हिम्मत नहीं हुई कि उसके पास आए और वहीं से वह भयभीत हिरनी की भाँति सिर उचका-घुमाकर बेटे को व्यग्रता से निहारती रही। किंतु, लगभग दस मिनट बीतने के पश्चात भी जब रामचंद्र नहीं उठा, तो वह घबरा गई। पास जाकर पुकारा- बड़कू, बड़कू’! लेकिन उसके कुछ उत्तर न देने पर डर गई और लड़के की नाक के पास हाथ रख दिया। साँस ठीक से चल रही थी। फिर सिर पर हाथ रखकर देखा, बुखार नहीं था। हाथ के स्पर्श से रामचंद्र ने आँखें खोलीं। पहले उसने माँ की ओर सुस्त नजरों से देखा, फिर झट-से उठ बैठा। जूते निकालने और नीचे रखे लोटे के जल से हाथ-पैर धोने के बाद वह यंत्र की तरह चौकी पर आकर बैठ गया।
      सिध्देश्वर ने डरते-डरते पूछा, 'खाना तैयार है। यहीं लगाऊँ क्या?'
      रामचंद्र ने उठते हुए प्रश्न किया, 'बाबू जी खा चुके?'
      सिद्धेश्वरी ने चौके की ओर भागते हुए उत्तर दिया, 'आते ही होंगे।'
      रामचंद्र पीढ़े पर बैठ गया। उसकी उम्र लगभग इक्कीस वर्ष की थी। लंबा, दुबला-पतला, गोरा रंग, बड़ी-बड़ी आँखें तथा होठों पर झुर्रियाँ।
      वह एक स्थानीय दैनिक समाचार पत्र के दफ्तर में अपनी तबीयत से प्रूफरीडरी का काम सीखता था। पिछले साल ही उसने इंटर पास किया था।
      सिद्धेश्वरी ने खाने की थाली सामने लाकर रख दी और पास ही बैठकर पंखा करने लगी। रामचंद्र ने खाने की ओर दार्शनिक की भाँति देखा। कुल दो रोटियाँ, भर-कटोरा पनियाई दाल और चने की तली तरकारी।
      रामचंद्र ने रोटी के प्रथम टुकड़े को निगलते हुए पूछा, 'मोहन कहाँ हैं? बड़ी कड़ी धूप हो रही है।'
      मोहन सिद्धेश्वरी का मँझला लड़का था। उम्र अठ्ठारह वर्ष थी और वह इस साल हाईस्कूल का प्राइवेट इम्तहान देने की तैयारी कर रहा था। वह न मालूम कब से घर से गायब था और सिद्धेश्वरी को स्वयं पता नहीं था कि वह कहाँ गया है।



      किंतु सच बोलने की उसकी तबीयत नहीं हुई और झूठ-मूठ उसने कहा, 'किसी लड़के के यहाँ पढ़ने गया है, आता ही होगा। दिमाग उसका बड़ा तेज है और उसकी तबीयत चौबीस घंटे पढ़ने में ही लगी रहती है। हमेशा उसी की बात करता रहता है।'
      रामचंद्र ने कुछ नहीं कहा। एक टुकड़ा मुँह में रखकर भरा गिलास पानी पी गया, फिर खाने लग गया। वह काफी छोटे-छोटे टुकड़े तोड़कर उन्हें धीरे-धीरे चबा रहा था।
      सिद्धेश्वरी भय तथा आतंक से अपने बेटे को एकटक निहार रही थी। कुछ क्षण बीतने के बाद डरते-डरते उसने पूछा, 'वहाँ कुछ हुआ क्या?'
      रामचंद्र ने अपनी बड़ी-बड़ी भावहीन आँखों से अपनी माँ को देखा, फिर नीचा सिर करके कुछ रुखाई से बोला, 'समय आने पर सब ठीक हो जाएगा।'
      सिद्धेश्वरी चुप रही। धूप और तेज होती जा रही थी। छोटे आँगन के ऊपर आसमान में बादल में एक-दो टुकड़े पाल की नावों की तरह तैर रहे थे। बाहर की गली से गुजरते हुए एक खड़खड़िया इक्के की आवाज आ रही थी। और खटोले पर सोए बालक की साँस का खर-खर शब्द सुनाई दे रहा था।
      रामचंद्र ने अचानक चुप्पी को भंग करते हुए पूछा, 'प्रमोद खा चुका?'
      सिद्धेश्वरी ने प्रमोद की ओर देखते हुए उदास स्वर में उत्तर दिया, 'हाँ, खा चुका।'
      'रोया तो नहीं था?'
      सिद्धेश्वरी फिर झूठ बोल गई, 'आज तो सचमुच नहीं रोया। वह बड़ा ही होशियार हो गया है। कहता था, बड़का भैया के यहाँ जाऊँगा। ऐसा लड़का..'
       पर वह आगे कुछ न बोल सकी, जैसे उसके गले में कुछ अटक गया। कल प्रमोद ने रेवड़ी खाने की जिद पकड़ ली थी और उसके लिए डेढ़ घंटे तक रोने के बाद सोया था।
      रामचंद्र ने कुछ आश्चर्य के साथ अपनी माँ की ओर देखा और फिर सिर नीचा करके कुछ तेजी से खाने लगा।
      थाली में जब रोटी का केवल एक टुकड़ा शेष रह गया, तो सिद्धेश्वरी ने उठने का उपक्रम करते हुए प्रश्न किया, 'एक रोटी और लाती हूँ?'


      रामचंद्र हाथ से मना करते हुए हडबड़ा कर बोल पड़ा, 'नहीं-नहीं, जरा भी नहीं। मेरा पेट पहले ही भर चुका है। मैं तो यह भी छोडनेवाला हूँ। बस, अब नहीं।'
      सिद्धेश्वरी ने जिद की, 'अच्छा आधी ही सही।'
      रामचंद्र बिगड़ उठा, 'अधिक खिलाकर बीमार कर डालने की तबीयत है क्या? तुम लोग जरा भी नहीं सोचती हो। बस, अपनी जिद। भूख रहती तो क्या ले नहीं लेता?'
      सिद्धेश्वरी जहाँ-की-तहाँ बैठी ही रह गई। रामचंद्र ने थाली में बचे टुकड़े से हाथ खींच लिया और लोटे की ओर देखते हुए कहा, 'पानी लाओ।'
      सिद्धेश्वरी लोटा लेकर पानी लेने चली गई। रामचंद्र ने कटोरे को उँगलियों से बजाया, फिर हाथ को थाली में रख दिया। एक-दो क्षण बाद रोटी के टुकड़े को धीरे-से हाथ से उठाकर आँख से निहारा और अंत में इधर-उधर देखने के बाद टुकड़े को मुँह में इस सरलता से रख लिया, जैसे वह भोजन का ग्रास न होकर पान का बीड़ा हो।
      मँझला लड़का मोहन आते ही हाथ-पैर धो कर पीढ़े पर बैठ गया। वह कुछ साँवला था और उसकी आँखें छोटी थीं। उसके चेहरे पर चेचक के दाग थे। वह अपने भाई ही की तरह दुबला-पतला था, किंतु उतना लंबा न था। वह उम्र की अपेक्षा कहीं अधिक गंभीर और उदास दिखाई पड़ रहा था।
      सिद्धेश्वरी ने उसके सामने थाली रखते हुए प्रश्न किया, 'कहाँ रह गए थे बेटा? भैया पूछ रहा था।'
      मोहन ने रोटी के एक बड़े ग्रास को निगलने की कोशिश करते हुए अस्वाभाविक मोटे स्वर में जवाब दिया, 'कहीं तो नहीं गया था। यहीं पर था।'
      सिद्धेश्वरी वहीं बैठकर पंखा डुलाती हुई इस तरह बोली, जैसे स्वप्न में बड़बड़ा रही हो, 'बड़का तुम्हारी बड़ी तारीफ कर रहा था। कह रहा था, मोहन बड़ा दिमागी होगा, उसकी तबीयत चौबीसों घंटे पढ़ने में ही लगी रहती है।' यह कहकर उसने अपने मँझले लड़के की ओर इस तरह देखा, जैसे उसने कोई चोरी की हो।
      मोहन अपनी माँ की ओर देख कर फीकी हँसी हँस पड़ा और फिर खाने में जुट गया। वह परोसी गई दो रोटियों में से एक रोटी कटोरे की तीन-चौथाई दाल तथा अधिकांश तरकारी साफ कर चुका था।
      सिद्धेश्वरी की समझ में नहीं आया कि वह क्या करे। इन दोनों लड़कों से उसे बहुत डर लगता था। अचानक उसकी आँखें भर आईं। वह दूसरी ओर देखने लगी।

      थोड़ी देर बाद उसने मोहन की ओर मुँह फेरा, तो लड़का लगभग खाना समाप्त कर चुका था।
      सिद्धेश्वरी ने चौंकते हुए पूछा, 'एक रोटी देती हूँ?'
      मोहन ने रसोई की ओर रहस्यमय नेत्रों से देखा, फिर सुस्त स्वर में बोला, 'नहीं।'
      सिद्धेश्वरी ने गिड़गिड़ाते हुए कहा, 'नहीं बेटा, मेरी कसम, थोड़ी ही ले लो। तुम्हारे भैया ने एक रोटी ली थी।'
      मोहन ने अपनी माँ को गौर से देखा, फिर धीरे-धीरे इस तरह उत्तर दिया, जैसे कोई शिक्षक अपने शिष्य को समझाता है, 'नहीं रे, बस, अव्वल तो अब भूख नहीं। फिर रोटियाँ तूने ऐसी बनाई हैं कि खाई नहीं जातीं। न मालूम कैसी लग रही हैं। खैर, अगर तू चाहती ही है, तो कटोरे में थोड़ी दाल दे दे। दाल बड़ी अच्छी बनी है।'
      सिद्धेश्वरी से कुछ कहते न बना और उसने कटोरे को दाल से भर दिया।
      मोहन कटोरे को मुँह लगाकर सुड़-सुड़ पी रहा था कि मुंशी चंद्रिका प्रसाद जूतों को खस-खस घसीटते हुए आए और राम का नाम लेकर चौकी पर बैठ गए। सिद्धेश्वरी ने माथे पर साड़ी को कुछ नीचे खिसका लिया और मोहन दाल को एक साँस में पीकर तथा पानी के लोटे को हाथ में लेकर तेजी से बाहर चला गया।
      दो रोटियाँ, कटोरा-भर दाल, चने की तली तरकारी। मुंशी चंद्रिका प्रसाद पीढ़े पर पालथी मारकर बैठे रोटी के एक-एक ग्रास को इस तरह चुभला-चबा रहे थे, जैसे बूढ़ी गाय जुगाली करती है। उनकी उम्र पैंतालीस वर्ष के लगभग थी, किंतु पचास-पचपन के लगते थे। शरीर का चमड़ा झूलने लगा था, गंजी खोपड़ी आईने की भाँति चमक रही थी। गंदी धोती के ऊपर अपेक्षाकृत कुछ साफ बनियान तार-तार लटक रही थी।
      मुंशी जी ने कटोरे को हाथ में लेकर दाल को थोडा सुड़कते हुए पूछा, 'बड़का दिखाई नहीं दे रहा?'
      सिद्धेश्वरी की समझ में नहीं आ रहा था कि उसके दिल में क्या हो गया है- जैसे कुछ काट रहा हो। पंखे को जरा और जोर से घुमाती हुई बोली, 'अभी-अभी खाकर काम पर गया है। कह रहा था, कुछ दिनों में नौकरी लग जाएगी। हमेशा, बाबू जी, बाबू जी किए रहता है। बोला, बाबू जी देवता के समान हैं।'


      मुंशी जी के चेहरे पर कुछ चमक आई। शरमाते हुए पूछा, 'ऐं, क्या कहता था कि बाबू जी देवता के समान हैं? बड़ा पागल है।'
      सिद्धेश्वरी पर जैसे नशा चढ़ गया था। उन्माद की रोगिणी की भाँति बड़बड़ाने लगी, 'पागल नहीं है, बड़ा होशियार है। उस जमाने का कोई महात्मा है। मोहन तो उसकी बड़ी इज्जत करता है। आज कह रहा था कि भैया की शहर में बड़ी इज्जत होती है, पढ़ने-लिखनेवालों में बड़ा आदर होता है और बड़का तो छोटे भाइयों पर जान देता है। दुनिया में वह सब कुछ सह सकता है, पर यह नहीं देख सकता कि उसके प्रमोद को कुछ हो जाए।'
      मुंशी जी दाल-लगे हाथ को चाट रहे थे। उन्होंने सामने की ताक की ओर देखते हुए हँसकर कहा, 'बड़का का दिमाग तो खैर काफी तेज है, वैसे लड़कपन में नटखट भी था। हमेशा खेल-कूद में लगा रहता था, लेकिन यह भी बात थी कि जो सबक मैं उसे याद करने को देता था, उसे बर्राक रखता था। असल तो यह कि तीनों लड़के काफी होशियार हैं। प्रमोद को कम समझती हो?' यह कहकर वह अचानक जोर से हँस पड़े।
      मुंशी जी डेढ़ रोटी खा चुकने के बाद एक ग्रास से युद्ध कर रहे थे। कठिनाई होने पर एक गिलास पानी चढ़ा गए। फिर खर-खर खाँसकर खाने लगे।
      फिर चुप्पी छा गई। दूर से किसी आटे की चक्की की पुक-पुक आवाज सुनाई दे रही थी और पास की नीम के पेड़ पर बैठा कोई पंडूक लगातार बोल रहा था।
      सिद्धेश्वरी की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहे। वह चाहती थी कि सभी चीजें ठीक से पूछ ले। सभी चीजें ठीक से जान ले और दुनिया की हर चीज पर पहले की तरह धड़ल्ले से बात करे। पर उसकी हिम्मत नहीं होती थी। उसके दिल में जाने कैसा भय समाया हुआ था।
      अब मुंशी जी इस तरह चुपचाप दुबके हुए खा रहे थे, जैसे पिछले दो दिनों से मौन-व्रत धारण कर रखा हो और उसको कहीं जाकर आज शाम को तोड़ने वाले हों।
      सिद्धेश्वरी से जैसे नहीं रहा गया। बोली, 'मालूम होता है, अब बारिश नहीं होगी।'
      मुंशी जी ने एक क्षण के लिए इधर-उधर देखा, फिर निर्विकार स्वर में राय दी, 'मक्खियाँ बहुत हो गई हैं।'
      सिद्धेश्वरी ने उत्सुकता प्रकट की, 'फूफा जी बीमार हैं, कोई समाचार नहीं आया।

      मुंशी जी ने चने के दानों की ओर इस दिलचस्पी से दृष्टिपात किया, जैसे उनसे बातचीत करनेवाले हों। फिर सूचना दी, 'गंगाशरण बाबू की लड़की की शादी तय हो गई। लड़का एम.ए. पास है।'
       सिद्धेश्वरी हठात चुप हो गई। मुंशी जी भी आगे कुछ नहीं बोले। उनका खाना समाप्त हो गया था और वे थाली में बचे-खुचे दानों को बंदर की तरह बीन रहे थे।
सिद्धेश्वरी ने पूछा, 'बड़का की कसम, एक रोटी देती हूँ। अभी बहुत-सी हैं।'
      मुंशी जी ने पत्नी की ओर अपराधी के समान तथा रसोई की ओर कनखी से देखा, तत्पश्चात किसी छँटे उस्ताद की भाँति बोले, 'रोटी? रहने दो, पेट काफी भर चुका है। अन्न और नमकीन चीजों से तबीयत ऊब भी गई है। तुमने व्यर्थ में कसम धरा दी। खैर, कसम रखने के लिए ले रहा हूँ। गुड़ होगा क्या?'
      सिद्धेश्वरी ने बताया कि हंडिया में थोडा सा गुड़ है।
      मुंशी जी ने उत्साह के साथ कहा, 'तो थोडे गुड़ का ठंडा रस बनाओ, पीऊँगा। तुम्हारी कसम भी रह जाएगी, जायका भी बदल जाएगा, साथ-ही-साथ हाजमा भी दुरूस्त होगा। हाँ, रोटी खाते-खाते नाक में दम आ गया है।' यह कहकर वे ठहाका मारकर हँस पड़े।
      मुंशी जी के निबटने के पश्चात सिद्धेश्वरी उनकी जूठी थाली लेकर चौके की जमीन पर बैठ गई। बटलोई की दाल को कटोरे में उड़ेल दिया, पर वह पूरा भरा नहीं। छिपुली में थोड़ी-सी चने की तरकारी बची थी, उसे पास खींच लिया। रोटियों की थाली को भी उसने पास खींच लिया। उसमें केवल एक रोटी बची थी। मोटी-भद्दी और जली उस रोटी को वह जूठी थाली में रखने जा रही थी कि अचानक उसका ध्यान ओसारे में सोए प्रमोद की ओर आकर्षित हो गया। उसने लड़के को कुछ देर तक एकटक देखा, फिर रोटी को दो बराबर टुकड़ों में विभाजित कर दिया। एक टुकड़े को तो अलग रख दिया और दूसरे टुकड़े को अपनी जूठी थाली में रख लिया। तदुपरांत एक लोटा पानी लेकर खाने बैठ गई। उसने पहला ग्रास मुँह में रखा और तब न मालूम कहाँ से उसकी आँखों से टप-टप आँसू चूने लगे।

      सारा घर मक्खियों से भनभन कर रहा था। आँगन की अलगनी पर एक गंदी साड़ी टँगी थी, जिसमें पैबंद लगे हुए थे। दोनों बड़े लड़कों का कहीं पता नहीं था। बाहर की कोठरी में मुंशी जी औंधे मुँह होकर निश्चिंतता के साथ सो रहे थे, जेसे डेढ़ महीने पूर्व मकान-किराया-नियंत्रण विभाग की क्लर्की से उनकी छँटनी न हुई हो और शाम को उनको काम की तलाश में कहीं जाना न हो।