Sunday 9 July 2017

भरत प्रसाद की कविता

      प्रतिरोध अमर है

जब फुफकारती हुई मायावी सत्ता का आतंक
जहर के मानिंद हमारी शिराओं में बहने लगे
जब झूठ की ताकत, सच के नामोनिशान मिटाकर
हमारी आत्मा पर घटाटोप की तरह छा जाय
जब हमारी जुबान, फ़िजाओं में उड़ती दहशत की सनसनी से
गूंगी हो जाय
जब हमारा मस्तक, सैकड़ों दिशाओं में मौजूद तानाशाही की माया से
झुकते ही चले जाने का रोगी हो जाय
तो प्रतिरोध अनिवार्य है
अनिवार्य है वह आग, जिसे इन्कार कहते हैं
बेवशी वह जंजीर है जो हमें मुर्दा बना देती है
विक्षिप्त कर देती है वह पराजय
जो दिनरात चमड़ी के नीचे धिक्कार बनकर टीसती है
गुलामी का अर्थ
अपने वजूद की गिरवी रखना भर नहीं है
न ही अपनी आत्मा को बेमौत मार डालना है
बल्कि उसका अर्थ
अपनी कल्पना को अंधी बना देना भी है
अपने इंसान होने का मान यदि रखना है
तो आँखें मूँद कर कभी भी पीछेपीछे मत चलना
हाँहाँ की आदत अर्थहीन कर देती है हमें
जी-जी कहते-कहते एक दिन नपुंसक हो जाते हैं हम
तनकर खड़ा न होने की कायरता
एक दिन हमें जमीन पर रेंगने वाला कीड़ा बना देती है
जरा देखो! कहीं अवसरवादी घुटनों में घुन तो नहीं लग गए हैं?
पंजों की हड्डियां कहीं खोखली तो नहीं हो गयी हैं?
हर वक्त झुके रहने से
रीढ़ की हड्डी गलने तो नहीं लगी है?
पसलियाँ चलते-फिरते ढाँचे में तब्दील तो नहीं होने लगी हैं?
जरा सोचो!
दोनों आँखें कहीं अपनी जगह से पलायन तो नहीं करने लगी हैं?
अपमान की चोट सहकर जीने का दर्द
पूछना उस आदमी से
जो अपराध तो क्या, अन्याय तो क्या
सूई की नोंक के बराबर भी झूठ बोलते समय
रोवां-रोवां कांपता है 
याद रखना
आज भी जालसाज की प्रभुसत्ता
सच्चाई के सीने पर चढ़कर उसकी गर्दन तोड़ते हुए
खूनी विजय का नृत्य करती है 
आज भी ऐय्याश षड़यंत्र के गलियारे में
काटकर फेंक दी गयी ईमानदारी की आत्मा
मरने से पहले सौ-सौ आँसू रोती है 
अपनी भूख मिटाने के लिए
न्याय को बेंच-बांचकर खा जाने वाले व्यापारी
फैसले की कुर्सी पर पूजे जाते हैं आज भी 
आज का आदमी
उन्नति के बरगद पर क्यों उल्टा नजर आता है?
आज दहकते हुए वर्तमान के सामने
उसका साहसिक सीना नहीं
सिकुड़ी हुई पीठ नजर आती है
आज हम सबने अपनी-अपनी सुरक्षित बिल ढूंढ ली है
जमाने की हकीकत से भागकर छिपने के लिए 
इससे पहले कि तुम्हारे जीवन में
चौबीस घंटे की रात होने लगे
रोक दो मौजूदा समय का तानाशाह पहिया
मोड़ दो वह अंधी राह
जो तुम्हें गुमनामी के पागलखाने के सिवाय
और कहीं नहीं ले जाती 
फिज़ा में खींच दो न बन्धु!
इन्कार की लकीर,
आज तनिक लहरा दो न!
ना कहने वाला मस्तक
बर्फ की तरह निर्जीव रहकर
सबकुछ चुपचाप सह जाने का वक्त नहीं है यह                         

भरत प्रसाद

नाम      -    डॉ भरत प्रसाद
जन्म      -    25 जनवरी, 1970 ई., ग्राम- हरपुर, जिला- संत कबीर  
               नगर (उत्तर प्रदेश)
माता-पिता  -    श्रीमती फूलमती देवी एवं श्री रामलखन त्रिपाठी
शिक्षा      -    एम. फिल., पीएच. डी. 
रुचियाँ          -    साहित्य, सामाजिक कार्य और पेंटिंग।
पुस्तकें         - और फिर एक दिन (कहानी संग्रह),        
                देसी पहाड़ परदेसी लोग (लेख संग्रह)    
                एक पेड़ की आत्मकथा (काव्य संग्रह)     
                नई कलम: इतिहास रचने की चुनौती (आलोचना) 
                सृजन की इक्कीसवीं सदी (लेख संग्रह)
                बीच बाजार में साहित्य (लेख संग्रह)
                चौबीस किलो का भूत (कहानी संग्रह)
सम्पादन      - जनपथपत्रिका के युवा कविता विशेषांक- सदी के शब्द   
                प्रमाणका सम्पादन
पुरस्कार      - 1. सृजन-सम्मान- 2005 ई. रायपुर (छत्तीसगढ़)
                      2. अम्बिका प्रसाद दिव्य रजत अलंकरण, वर्ष- 2008 ई.,  
                 भोपाल (मध्यप्रदेश)
                      3.  युवा शिखर सम्मान- 2011, शिमला (हिमाचल प्रदेश)
                      4. मलखान सिंह सिसौदिया कविता पुरस्कार- 2014 ई.,
                 अलीगढ़, (उ.प्र.)
                      5. पूर्वोत्तर साहित्य परिषद् पुरस्कार, शिलांग (मेघालय)
स्तम्भ-लेखन  -  परिकथापत्रिका के लिए ताना-बानाशीर्षक से स्तम्भ-
                लेखन (2008-2012ई.)
रचना-अनुवाद -   लेख और कविताओं का अंग्रेजी, बांग्ला एवं पंजाबी   

               भाषाओं में अनुवाद।
स्थायी पता   -  ग्राम-हरपुर, पोस्ट- पचनेवरी, जिला- संतकबीर नगर, 272271 (उ.प्र.)
वर्तमान पता   - एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय, शिलांग, 793022 (मेघालय)
          फोन - 0364-2726520 (आवास), मो. 0963076138, 09774125265

          ई-मेल- deshdhar@gmail.com

Wednesday 26 April 2017

लोकोदय पत्रिका - जुलाई अंक

लोकोदय पत्रिका का जुलाई अंक हिंदी साहित्य में शैक्षिक मुद्देविषय पर केन्द्रित किया जा रहा है इस अंक में हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं की ऐसी रचनाओं का प्रकाशन किया जाएगा, जिनमें बालमन, स्कूल, शिक्षक, कक्षा-शिक्षक प्रक्रिया, पाठ्यचर्या, शिक्षा के उद्देश्य, वर्तमान में शिक्षा के स्वरूप, शिक्षा और शिक्षक की समस्याओं आदि को रेखांकित किया गया हो इस अंक में शिक्षा के विविध पहलुओं से जुडी मौलिक रचनाओं जैसे- कविता, कहानी, उपन्यास अंश, निबंध, संस्मरण, आलेख, डायरी आदि के साथ-साथ उन पर आलोचनात्मक आलेखों और शिक्षा पर केन्द्रित पुस्तकों की समीक्षा का प्रकाशन भी किया जाएगा
इस अंक के माध्यम से इस बात की गहन पड़ताल की जाएगी कि हिंदी साहित्य शैक्षिक मुद्दों को कितना और किस रूप में संबोधित करता है इसके पीछे हमारा उद्देश्य समाज में बालमन और शिक्षा को लेकर एक सही समझ का निर्माण करना है ताकि एक रचनात्मक, संवेदनशील, लोकतान्त्रिक और वैज्ञानिक सोच से लैस समाज की दिशा में आगे बढ़ा जा सके
आपसे अनुरोध है कि इस अंक के लिए अपनी मौलिक और अप्रकाशित रचनाएँ पत्रिका के ई-मेल- lokodaymagazine@gmail.com पर भेजने के साथ-साथ उन रचनाओं से भी हमें अवगत कराने का कष्ट करें जो शिक्षा से जुडी हों हमें आशा है कि आप अपनी रचनाएँ हमें 10 जून 2017 तक अवश्य भेजने का कष्ट करेंगे
इस अंक का सम्पादन महेश पुनेठा करेंगे

Thursday 26 January 2017

जगदीश पंकज के नवगीत

सीमित शब्दों में विस्तृत अनुभवों की अभिव्यक्ति और उनका लय-ताल बद्ध संयोजन ये सब मिलकर नवगीत को आकर्षक और संप्रेषणीय बनाते हैं। गीतों में वह प्रेरक शक्ति होती है जो इंसान के भीतर तमाम तरह की भावनाओं का संचार कर सकती है, दुःख व विषाद के गीत जहाँ हमें उदासी के सागर में डुबो सकते हैं वहीँ उत्साह के गीत सुनकर मन झूम उठता है। इतिहास साक्षी है कि विश्व की तमाम क्रांतियों में गीतों का अपना मक़ाम रहा है। जगदीश पंकज के नवगीत, आज के समय से मुठभेड़ करने वाले नवगीत हैं। अच्छे दिनोंके आवरण में लिपटे शोषणकारी तथा झूठ व जुमलों से भरे जिस विडंबनात्मक समय में हम जी रहे हैं, उसमें एक ईमानदार रचनाकर्मी भला कैसे प्रकृति और प्रेम के गीत लिख सकेगा। राजनीति का यह काल मनुष्य से उसकी कोमलता और मनुष्यता को छीनने वाला काल है। जगदीश पंकज के गीत आवाम के लिए लिखे गए ओजस्वी नवगीत हैं। ये सच की परतों को उद्घाटित करते हैं, अपने सधे शब्दों में ये गीत सत्ता को सावधान करते हैं और उसे बताते हैं कि जनता उसकी काली करतूतों को न सिर्फ़ जानती है बल्कि उनके प्रतिरोध की क्षमता भी रखती है। ये गीत व्यवस्था को चुनौती देते हैं, शोषण का विरोध करते हैं और वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य का एक्स-रे हमारे सामने प्रस्तुत कर देते हैं. जहाँ प्रतिरोध इन गीतों का स्थायी भाव है वहीँ करुणा इनकी तहों के भीतर से झाँक रही है। शासन-प्रशासन के चंगुल में फंसा आम आदमी कराह रहा है और उसकी लाचारी उसको खालीपन से भरती जा रही है। अभिव्यक्ति का स्पेस निरंतर सिकुड़ता जा रहा है और प्रतिबद्धताएँ अब गुज़रे ज़माने की बात हो चुकी हैं। ये नवगीत व्यवस्था के प्रति हमारा सामूहिक रुदन हैं। इनमें मौजूद रोष, क्रोध और विप्लव की गूँज हमारे साझी हैं।



जगदीश पंकज 

जगदीश पंकज के कुछ नवगीत 




हमने अंगारे चूमे हैं

हमने अंगारे चूमे हैं
आग उठाई है पोरों से
नहीं किसी भी चिंगारी के
आगे झुककर किया समर्पण

नहीं बिछौना मिला
नींद आ गयी हमें
नंगी धरती पर
हमने नहीं छिपाया
कुछ भी
जैसे बाहर ,वैसे भीतर

जब भी मिले ,
खिले मन से ही
बाँहें खोल किया है अर्पण

तुम भी बहलाने आये थे
लेकर अपने
झाँझ -मँजीरे
नई तान में गान बांधकर
जहर सुनाया
धीरे-धीरे

तुमने जो शीशे दिखलाये 
वे सब निकले
अन्धे दर्पण

जिस्म हमारे बड़े हुए हैं
आँसू और
पसीना पीकर
हमने किया तुम्हारा पोषण
आधे और
अधूरे जीकर

जिस सच को तुम फेंक रहे हो
नहीं रहा
उसमें आकर्षण



जो कहा तुमने

जो कहा तुमने
वही है सत्य
कैसे मान लें हम
जब हमारे कान में
सीसा पिघलता जा रहा है

रिक्तता का बोध
गहराता हुआ अब
बढ़ रहा है
ज्ञान के ठहरे हुए
जल का सरोवर
सड़ रहा है

काटकर कर सन्दर्भ से
दुहरा रहे तुम
उक्तियों को
आँकड़ों की आँच में
सौजन्य जलता जा रहा है

तुम तिमिर के
पक्षधर हो
हम किरण के सार्थवाही
हर कदम देता
तुम्हारी नग्नता की
ही गवाही 

प्रश्न है,सर्वज्ञता
कैसे विरासत
है तुम्हारी
माँगता उत्तर समय
पल-पल उबलता जा रहा है

सत्य कितना पारदर्शी
रह गया है
इस समय में
छद्म की शब्दावली
बढती गयी है
क्रूर भय में

झूठ दोहराया गया
विज्ञापनों में
जो निरंतर
सत्य को ,विश्वास को
हर पल ,निगलता जा रहा है 



थपथपाये हैं हवा ने द्वार मेरे

थपथपाये हैं हवा ने द्वार मेरे 
क्या किसी बदलाव के 
संकेत हैं ये

फुसफुसाहट,
खिड़कियों के कान में भी
क्या कोई षड़यंत्र
पलता जा रहा है
या हमारी
शुद्ध निजता के हनन को
फिर नियोजित तंत्र
ढलता जा रहा है

मैं चकित गुमसुम गगन की बेबसी से
क्या किसी ठहराव के
संकेत हैं ये

चुभ रहा है सत्य
जिनकी हर नज़र को 
वे उड़ाना चाहते हैं
आँधियों से
या कोई निर्जीव सुविधा
फेंक मुझको
बाँध देना चाहते हैं
संधियों से

जब असह उनको हमारा हर कदम तो
क्या सभी बहलाव के
संकेत हैं ये 

धूल ,धूँआँ ,धुंध
फैले आँगनों में 
जो दिवस की रोशनी को
ढक रहे हैं
पर सदा प्रतिबद्ध
रहते देख मुझको  
चाल अपनी व्यर्थ पाकर
थक रहे हैं

लग रहा है अब मुझे हर पल निरन्तर
बस बदलते दांव के

संकेत हैं ये