Thursday 26 January 2017

जगदीश पंकज के नवगीत

सीमित शब्दों में विस्तृत अनुभवों की अभिव्यक्ति और उनका लय-ताल बद्ध संयोजन ये सब मिलकर नवगीत को आकर्षक और संप्रेषणीय बनाते हैं। गीतों में वह प्रेरक शक्ति होती है जो इंसान के भीतर तमाम तरह की भावनाओं का संचार कर सकती है, दुःख व विषाद के गीत जहाँ हमें उदासी के सागर में डुबो सकते हैं वहीँ उत्साह के गीत सुनकर मन झूम उठता है। इतिहास साक्षी है कि विश्व की तमाम क्रांतियों में गीतों का अपना मक़ाम रहा है। जगदीश पंकज के नवगीत, आज के समय से मुठभेड़ करने वाले नवगीत हैं। अच्छे दिनोंके आवरण में लिपटे शोषणकारी तथा झूठ व जुमलों से भरे जिस विडंबनात्मक समय में हम जी रहे हैं, उसमें एक ईमानदार रचनाकर्मी भला कैसे प्रकृति और प्रेम के गीत लिख सकेगा। राजनीति का यह काल मनुष्य से उसकी कोमलता और मनुष्यता को छीनने वाला काल है। जगदीश पंकज के गीत आवाम के लिए लिखे गए ओजस्वी नवगीत हैं। ये सच की परतों को उद्घाटित करते हैं, अपने सधे शब्दों में ये गीत सत्ता को सावधान करते हैं और उसे बताते हैं कि जनता उसकी काली करतूतों को न सिर्फ़ जानती है बल्कि उनके प्रतिरोध की क्षमता भी रखती है। ये गीत व्यवस्था को चुनौती देते हैं, शोषण का विरोध करते हैं और वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य का एक्स-रे हमारे सामने प्रस्तुत कर देते हैं. जहाँ प्रतिरोध इन गीतों का स्थायी भाव है वहीँ करुणा इनकी तहों के भीतर से झाँक रही है। शासन-प्रशासन के चंगुल में फंसा आम आदमी कराह रहा है और उसकी लाचारी उसको खालीपन से भरती जा रही है। अभिव्यक्ति का स्पेस निरंतर सिकुड़ता जा रहा है और प्रतिबद्धताएँ अब गुज़रे ज़माने की बात हो चुकी हैं। ये नवगीत व्यवस्था के प्रति हमारा सामूहिक रुदन हैं। इनमें मौजूद रोष, क्रोध और विप्लव की गूँज हमारे साझी हैं।



जगदीश पंकज 

जगदीश पंकज के कुछ नवगीत 




हमने अंगारे चूमे हैं

हमने अंगारे चूमे हैं
आग उठाई है पोरों से
नहीं किसी भी चिंगारी के
आगे झुककर किया समर्पण

नहीं बिछौना मिला
नींद आ गयी हमें
नंगी धरती पर
हमने नहीं छिपाया
कुछ भी
जैसे बाहर ,वैसे भीतर

जब भी मिले ,
खिले मन से ही
बाँहें खोल किया है अर्पण

तुम भी बहलाने आये थे
लेकर अपने
झाँझ -मँजीरे
नई तान में गान बांधकर
जहर सुनाया
धीरे-धीरे

तुमने जो शीशे दिखलाये 
वे सब निकले
अन्धे दर्पण

जिस्म हमारे बड़े हुए हैं
आँसू और
पसीना पीकर
हमने किया तुम्हारा पोषण
आधे और
अधूरे जीकर

जिस सच को तुम फेंक रहे हो
नहीं रहा
उसमें आकर्षण



जो कहा तुमने

जो कहा तुमने
वही है सत्य
कैसे मान लें हम
जब हमारे कान में
सीसा पिघलता जा रहा है

रिक्तता का बोध
गहराता हुआ अब
बढ़ रहा है
ज्ञान के ठहरे हुए
जल का सरोवर
सड़ रहा है

काटकर कर सन्दर्भ से
दुहरा रहे तुम
उक्तियों को
आँकड़ों की आँच में
सौजन्य जलता जा रहा है

तुम तिमिर के
पक्षधर हो
हम किरण के सार्थवाही
हर कदम देता
तुम्हारी नग्नता की
ही गवाही 

प्रश्न है,सर्वज्ञता
कैसे विरासत
है तुम्हारी
माँगता उत्तर समय
पल-पल उबलता जा रहा है

सत्य कितना पारदर्शी
रह गया है
इस समय में
छद्म की शब्दावली
बढती गयी है
क्रूर भय में

झूठ दोहराया गया
विज्ञापनों में
जो निरंतर
सत्य को ,विश्वास को
हर पल ,निगलता जा रहा है 



थपथपाये हैं हवा ने द्वार मेरे

थपथपाये हैं हवा ने द्वार मेरे 
क्या किसी बदलाव के 
संकेत हैं ये

फुसफुसाहट,
खिड़कियों के कान में भी
क्या कोई षड़यंत्र
पलता जा रहा है
या हमारी
शुद्ध निजता के हनन को
फिर नियोजित तंत्र
ढलता जा रहा है

मैं चकित गुमसुम गगन की बेबसी से
क्या किसी ठहराव के
संकेत हैं ये

चुभ रहा है सत्य
जिनकी हर नज़र को 
वे उड़ाना चाहते हैं
आँधियों से
या कोई निर्जीव सुविधा
फेंक मुझको
बाँध देना चाहते हैं
संधियों से

जब असह उनको हमारा हर कदम तो
क्या सभी बहलाव के
संकेत हैं ये 

धूल ,धूँआँ ,धुंध
फैले आँगनों में 
जो दिवस की रोशनी को
ढक रहे हैं
पर सदा प्रतिबद्ध
रहते देख मुझको  
चाल अपनी व्यर्थ पाकर
थक रहे हैं

लग रहा है अब मुझे हर पल निरन्तर
बस बदलते दांव के

संकेत हैं ये

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